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गाँव में प्रकाश चंद सहाब के यहाँ बहुत विशाल सत्संग चलरा है। सभी आये हुये लोग भक्ति के रस में डूबे है। ईश्वर के संगीत की लहरें कानो पर इस कदर पड़ रही है कि मन इनमे ही झूम रहा है, चारो तरफ ऐसा प्रतीत होता की ईश्वर हमारे सामने ही विराजमान है। बड़े- बड़े पंडित जी यहाँ पर आये हुये है, गोपीराम नामक व्यक्ति भजन समाप्त होने के बाद सामने बैठे पंडित जी से कहने लगा पंडित जी भक्ति क्या है।
सारी भीड़ गोपीराम को देखने लगी की कैसा मुर्ख व्यक्ति है, इतने अच्छे कीर्तन, भजन, सत्संग के रस में डूबा था और फिर भी पूछ रहा है भक्ति क्या है ?
पंडित जी कहने लगे अरे! वाह क्या सवाल पूछा है अभी तक तुम जिस आनंद में झूम रहे थे, नाच रहे थे, गा रहे थे यही तो भक्ति है।
गोपीराम- पंडित जी! जब तक भजन चले तब तक ही मन में एक सुर बज रहे थे, जब यह संगीत समाप्त हुवा अब कुछ भी महसूस नहीं हो रहा है और संगीत के बाद आप कथा सुनाने लगे तो यहाँ से लोग जाने लगे कुछ बैठे लोगो को तो नींद आने लगी।
पंडित जी क्रोध करते हुवे – अरे! मुर्ख भक्ति प्रेम है, इसे मन से नहीं प्रेम से सुन और तुझे भक्ति का क्या बोध होगा जब तू मन से सुन रहा है।
फिर पंडित जी भीड़ से कहने लगे भक्ति क्या है ?
पहले तो भीड़ भी बहुत सोच में पड़ी फिर पंडित जी भीड़ से कहने लगे प्रेम है प्रेम।
भीड़ भी पंडित जी के पीछे कहने लगी प्रेम है प्रेम।
सभी बैठे लोगो के दिमाग में बात तो चली जरूर की भक्ति क्या है? क्योंकि जब तक भजन की लहरें थी तब तक ही इसमें हम डूबे थे। भक्ति तो ईस्वरीय प्रसाद है भजन के साथ आये और भजन के साथ चली जाये ऐसा तो हो नहीं सकता। और आज कल तो कोई सुबह मंदिर से होकर आये तो बड़ा छाती-चौड़ी कर के चलता है की आज तो में मंदिर होकर आया और अगर कोई किसी गरीब को मंदिर के आगे दान दे, तो जब तक वह पुरे गाँव को न बतादे तब तक उसे चैन नहीं आता यह भक्ति तो नहीं हो सकती।
पंडित जी ने तो परिभाषा ही दे दी जो की भक्ति को परिभाषा के रूप में कभी कहा नहीं जा सकता भक्ति की तो व्याख्या, वर्णन हो सकता है।
भक्ति एक सेतु है व्यक्ति और अस्तित्व के बीच- एक संगीतमय सेतु। भक्ति जीवन कि लयबद्धता है। भक्ति एक परम स्वीकृती है, यह परम बोध जीवन का परम आनंद है और यह बोध कोई तपश्चर्या, कोई प्रयास, कोई साधना नहीं है- यह तो स्मरण मात्र है। भक्ति का जीवन उत्सव का जीवन है। भक्ति ही पूर्ण प्रीति है या यूं कहें कि पूर्ण प्रीति ही भक्ति। कभी हमने यह जानने की जरुरत ही नहीं समझी की भक्ति क्या है बस चले जा रहे है, करे जा रहे है, जैसा जिसने कहा जैसा जिसने सिखाया, स्मरण कभी किया ही नहीं इतना समय कहा हमारे पास।
भक्ति परम प्रेम रूपा है । भक्ति को केवल प्रेम कहना ठीक नहीं। अगर सिर्फ हम भक्ति को प्रेम कहेंगे तो भक्ति और प्रेम में कोई फर्क ना रह जायेगा।
जीवन के तीन रूप- पहला काम, दूसरा प्रेम, और तीसरा भक्ति। प्रेम का एक हाथ काम में भी है और एक भक्ति में भी।
इसलिए यह कहे की भक्ति प्रेम है तो यह सही नहीं। काम और भक्ति का मध्य बिंदु प्रेम है।
प्रेम से ही हम काम की व्याख्या कर सकते है और भक्ति का वर्णन भी प्रेम से ही। काम में पूरा प्रेम नहीं रहता है। भक्ति में पूर्ण प्रेम होता है पर भक्ति को केवल प्रेम बोला जाये तो ठीक नहीं, परम प्रेम बोलना सही है। परम प्रेम अर्थात शुद्ध प्रेम, पूर्ण प्रेम जहा भक्ति प्रेम के अलावा और कुछ नहीं।
कोई भी कामना नहीं, कोई लोभ नहीं, कोई विचार नहीं, कोई विषय नहीं, ना क्रोध, ना अंहकार।
इस परम प्रेम में कुछ नहीं होता सिर्फ प्रभु और भक्त होते है।
ऐसी भक्ति जो चैतन्य को थी, मीरा में थी, प्रलाह्द में थी, हनुमान में थी।
परम प्रेम में सिर्फ भक्त प्रभु से ही नही उसकी हर चीज से प्रेम करता है, यह सृष्टि प्रभु की, इस जगत में सब जीव प्रभु के एक भक्त हमेसा सबसे प्रेम करेगा, उसके मन में किसी के लिए कोई गलत भावना नहीं होगी और ना किसी के प्रति ईर्षा की भावना। ना वो स्वर्ग की अपेक्षा करेगा क्योंकि स्वर्ग तो उसके लिए यह सृष्टि ही है जब हर जगह भक्त का प्रभु, तो उसके मन में किस बात का लोभ रहेगा। दयालु, सुख-दुख में अविचलित, बाहर-भीतर से शुद्ध, सर्वारंभ परित्यागी, चिंता व शोक से मुक्त, कामनारहित यह परम प्रेम जिसे भक्ति कहते है।लोग कहते हे पत्थर में भगवान कहा, में कहता हु उस परम प्रेम के नजर से देखो तो केवल पत्थर में ही नहीं पूरी सृष्टि में तुम्हे भगवान दिखेगा, खुद के भीतर तुम्हे प्रभु दिखेगें।
केवल परमात्मा के पूजन, ध्यान में लगे रहना ही भक्त होने का लक्षण नहीं है, बहुत से व्यक्ति है रोज सुबह मंदिर जाते है दिन-भर मालाये जपते है। और उनसे कोई बात करे तो देखना दुसरो की बुराई पर कितना रस लेते है, दूसरे के प्रति ईर्षा का तो क्या कहना अगर किसी दूसरे भक्त की उनके सामने तारीफ कर दी तो अंदर इतनी ईर्षा की साफ़-साफ़ उनके चेहरे पर दिखाई देगी। फिर अंहकार तो इतना की में तो भक्त हु दूसरे तो तुच्च प्राणी है, अपनी बात हमेसा उपर रखेंगे। यह व्यक्ति भक्त नहीं सिर्फ भगवान को आड़ बनाकर अपने अंहकार,ईर्षा,लोभ, क्रोध, को पूरा कर रहे है।
एक तरफ चाहते हो की महात्माओ की तरह लोग तुम्हे भी पूजे, तुम्हारी इज्जत करे और दूसरी तरफ ये भी चाहते हो संसार का सुख मिले क्रोध का रस मिले, ईर्षा का रस मिले तो यह तो कभी हो नहीं सकता एक व्यक्ति दो नॉव पर कभी सवार हो नहीं सकता।
यह परम प्रेम मनुष्य को फूल बनाता है जिसकी सौन्दर्ये खुश्बू से सारा जगत शुद्ध होने लगता है।
कभी भी कोई सच्चा भक्त मिले तो उसका साथ कर लेना क्योंकि सच्चे भक्त का संग इस जग से तार देता है।
इस परम प्रेम रूप भक्ति के सागर में डूब चलो।
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